चौथी दुनिया को जन्म देता समलैंगिक समाज?

चौथी दुनिया को जन्म देता समलैंगिक समाज?

मुसापिफर देहलवी
अगर हम समाज की बात करें तो इसमें से अगर मानव को हटा दिया जाए तो ध्रती केवल एक शून्य नजर आएगी वही प्रवृफति की इस अनमोल  ध्रती को चार चांद लगाते हैं मानव उपस्थिति। इसी मानव उपस्थिति के कारण पृथ्वी पर जीवन आगे बढ़ रहा है तथा इसमें संबंधें का बहुत बड़ा योगदान रहा है। जहां तक संबंधें की बात की जाए तो प्रवृफति में नारी पुरुष के संबंधें को मान्यता प्राप्त है तथा यह एक स्वस्थ समाज को आगे बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है और वहीं इस समाज में एक और समाज है जिसे तीसरी दुनिया का मानव कहा जाता है इनकी पौध प्रावृफतिक रूप में स्त्रा पुरुष के आपसी संबंधें के बाद अपूर्ण मानव के रूप में उत्पत्ति होती है जिससे एक अलग किन्नर की स्थापना हुई जिसकी अपनी अलग पहचान है। ये सारे मानवीय संबंध् प्रवृफतिक द्वारा मानव के बीच तय किये गये हैं लेकिन विकसित समाज की अविकसित सोच से उपजी समलैंगिकता ने चौथी दुनिया को साकार करने की कोशिश की है जिसे लेकर आजकल कापफी हो हल्ला मचाया जा रहा है।

पिछले कुछ समय पहले समलैंगिक संबंधों को लेकर कोर्ट ने जो पैफसला सुनाया उसने समाज में प्रवृफतिक संबंधें को लेकर एक बहस का मुद्दा लोगों के बीच गर्मा दिया और यह बहस इसलिए भी जरूरी बन गई कि जो संबंध् पर्दे के पीछे निभाए जाते हैं जिसे समाज में एक मर्यादित स्थान प्राप्त है उन संबंधें को लेकर जो नई पीढ़ी नयापन देने के साथ समाज में स्वीकार किये संबंधें के समकक्ष रख उसे समाज द्वारा स्वीवृफति प्रदान करने के लिए जो हो-हल्ला मचाया गया उन विचारधराओं के साथ पाश्चात्य संस्वृफति का पर्दापण होने से हमारे संस्कारों और सांस्वृफतिक और समाज के लिए अत्यंत घातक परिणाम की घिनौनी तस्वीर ही प्रस्तुत करेगा साथ ही हमारे युवा पीढ़ी के बीच एक विवृफत समाज की उपेक्षित संबंधें को नई जमीन देकर एक घिनौनी सोच की ऐसी दुनिया का विकास करने जा रहे है, जिसे हमारा समाज कभी भी मान्यता नहीं दे सकता, और न ही ऐसे बेमेल संबंधें को हम मान्यता देकर उस विषैले पौधें की जड़ों को कानूनी मान्यताओं के सहारे उसे सींचने की सोच सकते हैं।

हालांकि समलैंगिकता को लेकर इसके पक्षध्र भले ही पुरातन सांस्वृफतिक का हवाला देकर अजन्ता ऐलोरा की बनी उन तमाम स्थापित मूर्तियों और कामसूत्रा के सभी भाव भंगिमाएं को दर्शाकर भ्रमित करने के साथ वेदों तथा सांस्वृफतिक ध्रोहरों का भी उपहास उड़ाने से नहीं चूके। इतना ही नहीं उन्होंने अपनी बात मनवाने के लिए कुछ ऐसी पुरानी मान्यताओं तथा हमारी सांस्वृफतिक में आदिकाल से स्वीवृफत परंपरा की एक सोच का सहारा लेकर इस अवैध् संबंधें को सामाजिक मान्यता दिलाने के लिए जमा हुए हजारों की संख्या में ऐसे लोगों का हुजूम पार्लियामेंट स्ट्रीट पर जंतर मंतर के समीप देखा गया जिन्होंने दिल्ली उच्च न्यायालय के चीपफ जस्टिस ए.पी.शाह की खंड पीठ के पैफसले का स्वागत करते हुए समलैंगिक संबंधें को अपराध् श्रेणी से मुक्त कर दो समलैंगिक व्यक्तियों चाहे वह स्त्रा हो या पुरुष दोनों ही एक साथ शादीशुदा व्यक्ति की तरह जीवन व्यतीत करने को पूरी तरह स्वतंत्राता दी गई, इस पैफसले पर अपनी खुशी जाहिर की।

सन् 1860 में अंग्रेजों के महान बु(जीवी लार्ड मैकाले ने अमानवीय संबंधें के तहत धरा 377 के अंतर्गत दंड संहिता का प्रावधन किया था। जिसमें अप्रावृफतिक रूप से दो पुरुष या स्त्रा के संबंधें को अप्रावृफतिक ठहराते हुए संवाद स्थापित करने तक को घिनौने वृफत्यों में शामिल कर रखा था जिसका चलन पशु पक्षियों के बीच भी नहीं है। लेकिन नाज पफाउंडेशन द्वारा समलैंगिक संबंधें के अध्किरों के लिए लड़ी जाने वाली लड़ाई पर जो पैफसला दिल्ली उच्च न्यायालय ने कुछ शर्तों के साथ उन्हें वैधनिक प्रव्रिफया के तहत मान्यता देकर 149 वर्ष पुराने कानून को इसलिए नकार दिया कि यह कानून पुरानी विचारधराओं से जुड़ा होने के साथ सामाजिक गतिविध्यिं से कोसों दूर की चीज है, और वहीं आज का समाज उन पुरानी विचारधराओं पर चलना स्वीकार नहीं करता है, अगर दो व्यक्तियों के बीच आपसी समझौते के तहत किसी भी तरह के प्रेम संबंध् स्थापित हो जाते हैं तो उन्हें समाज में मान्यता मिलनी चाहिए साथ ही यह प्रेम संबंध् बंद कमरे में भी स्थापित करने की छूट चाहते हैं। इन सारी प्रावृफतिक परिस्थितियों को धरा 377 से मुक्त कर अपराध् नहीं माना जाना चाहिए ऐसी सोच समलैंगिक रिश्तें अपनाने वाले लोग चाहते हैं जबकि मैकाले के समय में इन संबंधें को देखकर भविष्य में इसे कोई नया आकार न मिले ऐसी व्यवस्था मैकाले द्वारा की गई और इस तरह के अप्रावृफतिक संबंध् समाज में न पनप सकें।

समाज में समलैंगिक संबंधें को कानूनी रूप से स्वीकार करने को लेकर पूरी दुनिया में जबरदस्त विवाद का विषय बना रहा है। ब्रिटेन में किंग एडवर्ड षष्ठम ने बगरी अध्नियम ;दुराचार निरोध्ी कानूनद्ध को वर्ष 1548 में रद्द कर दिया था लेकिन 15 वर्ष बाद महारानी एलिजाबेथ प्रथम ने इन अप्रावृफतिक संबंधें को अस्वीकार करते हुए अपने कार्यकाल में इस पर प्रतिबंध् लगा दिया।
समलैंगिक संबंधें को मान्यता देने के व्रफम में डेनमार्क ऐसा पहला देश बना जिसने वर्ष 1989 में समलैंगिक जोड़ों को विवाहित दंपतियों के बराबर अध्किर दिया। इसके बाद नार्वे, स्वीडन और आइसलैंड ने भी डेनमार्क का अनुसरण करते हुए उसी कदम पर चल पड़े। अप्रफीका के ज्यादातर हिस्सों में समलैंगिकता अवैध् है लेकिन रंगभेद की नीति समाप्त होने के बाद दक्षिण अप्रफीका के संविधन में भी समलैंगिक संबंधें में ढील देकर कुछ प्रावधन कर दिया गया। नेपाल में उच्चतम न्यायालय ने वर्ष 2007 में घोषणा की थी कि समलैंगिकों के खिलापफ सभी भेदभावपूवर्ण कानूनों को सरकार द्वारा निरस्त कर देना चाहिए।

संबंधें की बात की जाए तो भूतकाल में किसी स्त्रा का किसी अनजान पुरुष से बात करना भी अपराध्कि श्रेणी में माना जाता था। खैर भले ही दिल्ली उच्च न्यायालय का यह निर्णय विश्व की उदार परंपरा के आधर पर उचित माना जा रहा हो लेकिन सांस्वृफतिक आधार पर इसे कदापि स्वीकार नहीं किया जा सकता। शायद इन्हीं संदर्भो के आधर पर 377 की दंड संहिता को कुछ विदेशी न्यायालयों का तर्क देते हुए मानव अध्किरों की दुहाई भले ही दी गई हो लेकिन हमारी परंपरा और हमारा समाज इसे मान्यता नहीं देता, और न ही हमारे यहां किसी विवृफत मानसिकता को लेकर इतना गहन अध्ययन करने की आवश्यकता ही महसूस की गई और हमारे समाज ने इस समलैंगिक रिश्तों को लेकर इस पर अपनी नाराजगी ही व्यक्त की न कि इस पैफसले को स्वीकारा है। यूरोपीय सोच की बात की जाए तो इस तरह के अमानवीय वृफत्य के लिए यूरोप, कुवैत, ईरान, अरब अमीरात सहित इंग्लैंड और भौतिकवादी देश ऑस्ट्रेलिया व अमरीका में इस तरह के अप्रावृफतिक संबंधें का चलन इसलिए भी अधिक है, क्योंकि वहां के नवयुवकों और नवयुवतियों के बीच प्रावृफतिक यौनाचार को केवल मनोरंजन और मनबदलाव की वस्तु ही मानी जाती है। इसके लिए वहां की स्वच्छंद संस्वृफतिक और अत्यध्कि मांस मदिरा के सेवन के साथ स्त्रा-पुरुष का अकेलापन भी ऐसे वृफत्यों ने आग में घी डालने का ही कार्य किया है। हालांकि इस तरह के अप्रावृफतिक यौनाचार को भले विदेशी जमीन पर इसे अपराध् की श्रेणी में नहीं माना जाता है, लेकिन वहीं अगर हम पड़ोसी मुल्कों को देखे तो नेपाल और हांगकांग जैसे देशों में आज भी इसे असंवैधनिक माना जाता हैं जिसका उल्लेख हमारे न्यायध्ीशों की पीठ ने अपने पैफसले के बीच उदाहरण के तौर पर न्यायायिक मंच पर ढाल बनाते हुए अपनी सोच और पैफसले को भारतीय मान्यताओं की अनदेखी कर समलैंगिक अध्किरों की दुहाई देने वालों के पक्ष में पैफसला सुनाया, जिसके तहत भारतीय सांस्वृफतिक गलियारों के पक्षध्र का खेमा इस अमानवीय व्यवहार की जंग में सांस्वृफतिक मूल्यों के बचाव के तहत एक मंच में शामिल हो गया।

हालांकि इस वैचारिक दृष्टिकोण को लेकर भारत के बु(जीवी तथा विभिन्न र्ध्मों के र्ध्माचार्यों का मानना है कि हमारे देश में समलैंगिकता जैसा व्यवहार कुदरत के कानून के साथ एक अप्रावृफतिक व्यवहार तो है ही इसके साथ ही यह हमारी संस्वृफतिक और पारिवारिक जीवन को नष्ट कर देने वाली एक घातक बीमारी कही जा सकती है।
इस अप्रावृफतिक संबंध् के बारे में मुस्लिम समुदाय से संबंध् रखने वाले दिल्ली जामा मस्जिद के शाही इमाम अहमद बुखारी का कहना था कि समलैंगिकता को कानूनी रूप देना पूरी तरह से हमारे र्ध्म में स्वीकार्य नहीं है तथा इस तरह के पैफसले समाज के लिए हानिकारक ही सि( होंगे अगर सरकार धरा 377 को रद्द करने की कोशिश करती है तो इसका कड़ा विरोध् होना चाहिए। आल इंडियसा मुस्लिम पसर्नल बोर्ड के सदस्य मौलाना खालिद राशिद पिफरंगी महली का कहना है कि कोई भी र्ध्म समलैंगिकता की इजाजत नहीं देता। उन्होंने कहा सभी र्ध्मों में ये संबंध् अप्रवृफतिक है इसी के साथ यह भारतीय समाज की संस्वृफति के भी विपरीत है इसे आपराध्कि कानून के दायरे में बनाए रखना चाहिए। पफादर डोमिनिक इम्युएल ने कहा कि समलैंगिकता को अपराध् से हटाने से गिरजाघरों को कोई आपत्ति नहीं है लेकिन इसे कानूनी रूप नहीं दिया जाना चाहिए। धर्मिक संगठनों की आलोचना को खारिज करने की कोशिश करते हुए - हर र्ध्म में कहीं न कहीं चोरी छिपे समलैंगिक व्यवहार अवश्य रहा है परंतु इस तरह की मनोवृत्ति को कभी भी खुले रूप में मान्यता नहीं दी गई।

उच्च न्यायालय का यह पैफसला इसलिए सामने आया क्योंकि धरा 377 को कड़ाई से लागू करने को लेकर सरकार अभी तक कोई पैफसला नहीं ले पाईहै। गत् 07 नवंबर को जब इस मामले पर पैफसला सुरक्षित रखा गया था तो संप्रग की पूर्व सरकार ने भारतीय दंड संहित की धरा 377 समाप्त करने का कड़ा विरोध् किया था जिसमें अप्रावृफतिक यौन अपराधें के लिए आजीवन कारावास तक की सजा का प्रावधन है। इस मामले को लेकर सरकार के भीतर ही मतभेद रहे। गृह मंत्रालय जहां 377 समाप्त करने के हक में था, वहीं स्वास्थ्य मंत्रालय ने समलैंगिक अध्किरों का समर्थन करने वालों की खुलकर हिमायत की। सरकार ने बाद में उस समय के पूर्व स्वास्थ्य मंत्रा की विचारधरा को दरकिनार कर दिया और समलैंगिकता को समाज में सबसे अशोभनीय व्यवहार बताते हुए जनहित याचिका का विरोध् किया। अगर इन समलैंगिक संबंधें के कानून की बात की जाए तो यह 149 साल पुराना है जब लार्ड मैकाले ने भारतीय दंड संहिता में धरा 377 का प्रावधन किया था। इसके तहत विशेष संबंधें को प्रवृफतिक के खिलापफ बताते हुए इसे दंडनीय घोषित किया गया था। धरा 377 कहता है कि जो कोई भी स्वेच्छा से समागम के खिलापफ किसी पुरुष, महिला या पशु से अप्रावृफतिक संबंध् स्थापित करेगा उसे आजीवन कारावास या दस साल तक के कारावास और जुर्माने की भी सजा सुनाई जा सकती है।
भारतीय दड संहित के इस प्रावधन को आम तौर पर दुराचार निरोध्ी  कानून के नाम से जाना जाता है। धरा 377 में वर्ष 1935 में पहली बार संशोध्न किया गया जब विधि् निर्माताओं ने इसका दायरा बढ़ाकर इसमें ओरल सेक्स को भी शामिल कर दिया। वर्तमान समय में भारत में न्यायालयों ने अपने कुछ पैफसलों के जरिए इसके दायरे को और व्यापक करते हुए इसमें थाई सैक्स को भी शामिल कर लिया। दिल्ली उच्च न्यायालय ने ऐतिहासिक पैफसले में दो वयस्कों के बीच आपसी रजामंदी से समलैंगिक यौन संबंधें को वैध् करार दिया जिसको लेकर समाज में एक गहरी बहस छिड़ी हुई है और अब यह मामला सुप्रीम कोर्ट तक जाने की राह तय कर सकता है। अदालत ने कहा कि समलैंगिक संबंधें को अपराध् बताने वाला कानून मौलिक अध्किरों का उल्लंघन करता है। हालांकि बगैर आपसी रजामंदी के समलैगिकता को लेकर रजामंदी और गैररजामंदी को दो भागों में बांट दिया गया है। जिस पर अभी पूर्ण पैफसला आना बाकी है। इस विवादास्पद कानून से संबंध्ति पहला मामला अविभाजित भारत में वर्ष 1925 में खानू बनाम सम्राट के मामले में सामने आया था। उस मामले में यह पैफसला दियागया कि यौन संबंधें का उद्देश्य केवल संतोनोत्पत्ति है न कि इसकी आड़ में अनैतिक व्याभिचार को समाज में पैफलाया जाए।

एक आध्ुनिक लोकतंत्रा में बहुसंख्यकों के शासन के सि(ांत पर आधरित जो भी व्यवस्था है उसमें समाज में रह रहे विभिन्न समुदाय तथा वर्गों के हितों को ही बढ़ावा दिया जा सकता है न कि व्याभिचार जैसे संबंधें को जमीन पर पफलने-पूफलने का मौका दिया जा सकता है जबकि यह संबंध् पूफलों की बगिया में नागपफनी के कटीले पौधें के समान हैं जो पूफल चुनने वालों को केवल जख्म ही देते हैं तथा समाज में अच्छी संस्वृफतिक लोगों के मौलिक अध्किरों की सुरक्षा ही करती हैं, जो कुछ बाहुबलि तथा अनैतिक विचारधरा के लोगों से मेल नहीं खाते जिनका उद्देश्य केवल भौतिक सुख प्राप्त करना ही है।
मुगलकालीन समय में नवाबों के जीवन में किन्नरों की सेवा एक अहम स्थान रखती थी जो न केवल नवाबों की शारीरिक पीड़ा को दूर करते थे बल्कि उनकी बेगमों और नवाबों के बीच एक मध्यस्त की भूमिका भी अदा करते थे। यह नवाबी शौक की एक गुप्त परंपरा थी, जिसका प्रचलन भारतीय मुगलकालीन नवाबों के विशेष शौक और अÕयाशी प्रवृत्ति के बीच एक नवाबी शान का प्रतीक माना जाता था, साथ ही इसका चलन कुछ रईसजादों में भी देखा जाता था। मुगलकालीन समय में तकरीबन प्रत्येक नवाब अपने हरमखाने के लिए कोई कोती अर्थात् छोटी आयु का लड़का ;जिसे लोग नवाब का लौडां कहकर संबोध्ति करते थेद्ध रखते थे, वह किसी ऐसी स्थिति के लिए रखा गया ऐसा खिदमतगार होता था जो नवाब की तमाम तिमारदारी सहित हर प्रकार से सोते समय हाथ पांव की मालिश आदि करने के साथ स्नान तथा अनेकों तरह के कार्यो को पूर्ण करने में नवाबों की सुख सुविधओं का ख्याल रखता था। इस कार्य के लिए नवाबों के यहां कहीं कहीं पर किन्नर भी नियुक्त किये जाते थे। वर्तमान समय की बात की जाए तो आमतौर पर इस तरह के व्रिफयाकलापों को हमारी समाज में समलैंगिकता के दायरे में देखा जाता है और इन रिश्तों को समाज में अनैतिक करार दिया जाता रहा है लेकिन गुप्तरूप से इन संबंधें के तहत अवैध् संबंध् नवाबों की हवेली व हरम खानों से निकल कर एक छोटी सी जगह में सीमित हो चुके हैं तथा अनेकों स्थान जिसमें लखनउफ, रामपुर, हैदराबाद, आगरा, मैनपुरी, जयपुर तथा कोलकाता जैसे महानगर शामिल हैं यहां पर इनकी उपस्थिति देखी जा सकती है। ये समलैंगिक सन् 1920-1950 तक का सपफर तय करते हुए आज भी दिल्ली की गलियों में गुप्त रूप से अपना जीवन व्यतीत कर रहे हैं जिनमें किन्नर तथा मिराशखाने से संबंध्ति लोग किसी शुभ अवसर पर अपनी उपस्थिति दर्ज कराकर एक मनोरंजन के तहत गाना बजाना कर अपनी जीविका के लिए प्रयासरत रहते हैं तथा इस जीविका चलाने के साथ रात्रि में कुछ लग आवरण के साथ लोगों के सामने उपस्थित होते हैं। दिल्ली की गलियों में आज भी चोरी छिपे इस समलैंगिक रिश्तों की कोई न कोई गुप्त पहचान अवश्य मिल ही जाएगी। शायद यह गुप्त संबंध् आज भी दिल्ली की गलियों में सहित अन्य महानगरों की पॉश कालोनियों में इनकी उपस्थिति देखी जाती है जो किसी पारिवारिक रिश्ते की आड़ में इन संबंधें को आगे बढ़ाते रहते हैं।

कहने के लिए आज मॉर्डन युग में इस समुदाय को गे के नाम से संबोध्ति किया जाता है जो पहले कभी गिरिया और कोती के नाम से जाने जाते थे। वैसे भी अगर देखा जाए तो एन.सी.आर. तथा अरब देशों में नौकरी के नाम पर जो कम आयु के बच्चों ;12 से 18 वर्ष के बीचद्ध को भेजा जाता है उनके बारे में अकसर सुनने व पढ़ने को मिलता है कि वहां उनका उपयोग किसी शेख या अरबपति के पारिवारिक रिश्ते केरूप में एक हिस्सा बन गया है जो नवाबों की प्रथा की तर्ज पर कार्यरत है, तथा इस तरह से अरब के ध्नाढ्य शेखों के परिवार में इस गुप्त रिश्ते का चलन बदस्तूर जारी है, तथा इन संबंधें को गुप्त ही रखा जाता है। यह तमाम गतिविध्यिं सामाजिक मान मर्यादाओं को ध्यान में रखकर केवल अंध्ेरे कमरों के पर्दो में ही दपफन रहती हैंं। इस समलैंगिक रिश्तों को मान्यता देने के लिए समाज में दो तरपफा जंग छिड़ी हुई है। जहां कुछ संगठन उन्हें कानूनी जामा पहनाकर मान्यता दिलवाने की कोशिश में लगे हैं जिसे वर्षो से समलैंगिक नाम से उपेक्षा की दृष्टि से देखा जा रहा था। शायद उन्हीं अवैध् संबंधें को वैद्य करार देने को लेकर उन्होंने न्यायालय का दरवाजा खटखटाया भी, लेकिन मानव मूल्यों और संवैधनिक विचारधरा के चलते उन नारी पुरुष के पवित्रा रिश्ते में जो अनैतिकता की दीवार आई, उसके चलते इस समलैंगिक विवादों का दायरा अब और मान्यताओं से दूर होकर एक कानूनी बेडियो से आज भी आजाद नहीं हो पाया। हालांकि दिल्ली में पहले जब कभी मेले आदि का आयोजन होता था, उस वक्त इन मेलों की शोभा किन्नरों तथा उन गुप्त;कोटीद्ध समलैंगिक विचारों वाले ऐसे लोगों से हुआ करती थी जो कि शौकीन मिजाजों की गैर मान्यता प्राप्त रिश्ते की रात के अंध्ेरों में रोमांटिक क्षणों में रंगीनियां लुटाते थे। उसके लिए दिल्ली के कुछ चर्चित बजारो में सदर बाजार, चांदनी महल, जी.बी. रोड, पफरास खाना, गांध्ी नगर, तुर्कमान गेट, काजीहौल आदि जैसे क्षेत्रों की गलियों में वह तमाम ऐसे स्थान हैं जिनके बारे में वहां के कुछ खास लोग ही जानते थे, जहां उनकी कोड भाषा ननतई ननताना जैसी भाषा में एक दूसरे से बातचीत करते दिखाई देते थे। इस अवैध्रूप से उत्पन्न हुए रिश्ते को मान्यताओं की चहारीवारी में शामिल करने की जो छटपटाहट देखी जा रही है उसका दायरा पहले बहुत सीमित था जो आज बढ़कर करीब 25 हजार से उफपर पहुंच गया है जिसे कानून का अमली जामा पहनाकर उसे नया रूप देने की कोशिश की जा रही है वह अपने आप में एक नारी पुरुष के बिना, एक तीसरे समाज की उत्पत्ति और विवृफत समाज की ऐसी परंपरा की घिनौनी तस्वीर प्रस्तुत करती है जिसके लिए मानव मूल्यों से हटकर एक ऐसी दुनिया की आजादी की बात कर रहे हैं जैसे किसी राज्य के भूभाग में अवैध् टुकड़े को शामिल करने के साथ उन तमाम सुविधओं के लिए एक अमानवीय जंग हो जो अवैध् टुकड़ा सूरज की रोशनी में नहीं, बल्कि रात के अंध्ेरे को अपनी जिंदगी का हिस्सा मानता है तथा जिसकी दिनचर्या रात के अंध्ेरों में परवान चढ़ती है और सुबह की सुहावनी हवा में समाप्त हो जाती है।

आज के युग में न्यायविद्ां तथा र्ध्माचार्यों के बीच इस संबंध् को लेकर एक विवाद खड़ा हो गया है जहां न्यायविद् समाज में विकास के साथ नये-नये प्रयोगों को मान्यता देकर कुछ संभावनों को बल देते नजर आते हैं जिससे भविष्य में नई संभावनाएं पता चला सकें वहीं दूसरी तरपफ र्ध्माचार्य अपनी संस्वृफतिक को पाश्चात्य रहन-सहन से बचाने के लिए प्रयासरत हैं ताकि भविष्य में किसी अप्रिय तथा विवृफत समाज से मानव मूल्यों को बचाया जा सकें। हालांकि विवृफत समाज के कुछ लोगों की पौध् पैदा अपनी पैठ बनाने में संलग्न है जिसमें न तो पूफलों की खुशबू है और न ही छायादार पत्तियां, अगर इस पौध् से कोई समाज विकसित होता है तो उसका भविष्य क्या होगा यह कोई नहीं जानता।
समाज का आईना प्रस्तुत करने वाली पिफल्म इण्डस्ट्रीज की अनेकों पिफल्मों में समलैंगिकता का उल्लेख देखने को मिलता है। इन संबंधें को लेकर कुछ मनोचिकित्सकों का कहना है कि यह एक मानसिक उत्पीड़न है जिसके द्वारा एक ऐसी नशीली प्रवृत्ति पनपती है तथा क्षणि सुख का आभास प्राप्त करने के लिए प्रावृफतिक मूल्यों तक को त्याग दिया गया है इसके बदले वह अनेकों कष्टदायी पीड़ा को अपने गले लगाकर एक नारकीय जीवन जीने को मजबूर हो जाता है। इन संबंधें से उत्पन्न स्थिति के बारे में कुछ गुप्त रोग विशेषज्ञों का कहना है कि इस तरह के संबंधों से अनेक तरह की बीमारियां इंसान को नपुंसक तक बना डालती हैं इन संबंधें में लिप्त लोग संकोचवश अपना रोग अपने सगे संबंध्यिं तक को भी नहीं बताना चाहते और वह चोरी-छिपे नीम-हकीमों से अपना इलाज करवाते रहते हैं जो दिन- प्रतिदिन और भी गंभीर बीमारियों में जकड़ते चले जाते हैं इन गंभीर बीमारियों में बी.डी., सिपलिस, गनेरिया, सूजाक तथा स्किन की भयानक बीमारी के साथ कैंसर जैसी जानलेवा बीमारी भी लग जाती है जो मानव को एक विपरीत परिस्थिति में लाकर खड़ी कर देती है जहां से केवल पछतावे के कुछ नहीं हासिल होता।राजधनी में होने वाले समलैंगिक संबंधें का मुद्दा आज के समाज के लिए चुनौती का विषय बना हुआहै। अगर सरकार द्वारा ऐस संबंधें को मान्यता दे दी गई तो हमारे समाज में एक विवृफत समाज स्थापित हो जाएगा जिसमें नैतिक मूल्यों के मापदंड ही बदल जाएंगे।

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