परिन्दां के उजड़ते आशियाने और बिगड़ता पर्यावरण

परिन्दां के उजड़ते आशियाने और बिगड़ता पर्यावरण

मुसापिफर देहलवी



आजकल ग्लोबल वार्मिंग के चलते यूं तो समस्त दुनिया में इसका व्यापक असर पड़ रहा है, लेकिन इन दिनों सर्दी के मौसम ने भी इस वर्ष अपना रिकॉर्ड पिछले वर्षों की भांति अपनी पुरानी मौसमी ग्रापफ के रूप में दर्ज करा लिया है। जब भारत में क्या दिल्ली जैसी राजधानी में सन् 1958-2000 के बाद उसके प्रभाव में कापफी कमी दिखाई देने लगी।
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कुछ लोगों का मानना है कि यह बदलाव जंगलों में भारी संख्या में पेड़ों के काटे जाने और बढ़ती जनसंख्या के चलते महानगरों की भीड़ द्वारा मशीनीकरण और कल कारखानों के धुएं के साथ सड़कों पर दौड़ती कार और बसों की लंबी कतारों का कारवां और तेजी से कटते खेत और पानी के अभाव में सूखते खेतों की बंजर भूमि के कारण गुम होती हरियाली इसकी बर्बादी का मुख्य कारण बताई जा रही है। जहां मानव ने अपनी सुख सुविधओं के कारण जो आयाम ढूंढे उसके चलते उन्होंने भविष्य की चिंता न करते हुए केवल वर्तमान का ही ख्याल रखा, जिसकी वजह से ध्ीरे-ध्ीरे वातावरण में गर्मी और भूमि कटाव से नदी और कूओं में पानी का अभाव इसका प्रमुख कारण बताया जा रहा है।

जिसके लिए विश्व में बढ़ते पर्यावरण के खतरे को लेकर कापफी कायदे कानून तो बनाए गए। जिससे नदियों में पानी के श्रोतों की कमी न पड़े, क्योंकि पिछले वर्ष पहाड़ों पर घटते हुए ग्लेशियर और गोमुखी की जल धर के अपने स्थान से बदल जाने पर कापफी चिंता व्यक्त की जा रही थी। क्योंकि पवित्रा पावनी गंगा की सुरक्षा को लेकर वहां के संतों और महात्माओं द्वारा इसकी पवित्राता बनाए रहने के साथ गंगा और यमुना में गंदे नालों के पानी के बारे में जो हो हल्ला मचाया गया वह सभी को विदित है। जिस पर करोड़ों की राशि द्वारा गंगा जमुना की सपफाई का लक्ष्य रखा गया है, उस पर करोड़ों रुपये की राशि प्रत्येक राज्यों की सरकार द्वारा खर्च करने करने की बात को लेकर जोर भी दिया गया।
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हालांकि यह कार्य इतना आसान नहीं है। पिफर भी इसके लिए सरकार के साथ सामाजिक जागरूकता की भी आवश्यकता है। जिससे पहाड़ी क्षेत्रों में पहाड़ां पर बनने वाले प्रोजेक्ट द्वारा किसी प्रकार की हानि न हो और पहाड़ों के साथ वहां का प्रावृफतिक सौंदर्य भी बरकरार रह सके। जिसके लिए हमारे पर्यावरण के पंड़ितों व पर्यावरण प्रेमियों को तो चिंता है, लेकिन इन श्रोतों से व्यापारिक लाभ उठाने वाले दुकानदारों को इसकी कोई चिंता नहीं। जिनका उद्देश्य केवल जीवन में लाभ कमाकर अध्कि से अध्कि ध्न कमाना ही एक मात्रा लक्ष्य रहा है, उनकी नजर में पर्यावरण व गंगा जमुना की तहजीब और पेड़ कीपूजा अर्चना केवल एक ढोंग मात्रा ही दिखाई देता है।

शायद इसी कारणवश विकास के नाम जो प्रगति का लवादा ओढ़ कर जिस हिसाब से सड़कां के किनारे से पेड़ों की अंधध्ुंध् कटाई की गई उसके चलते मौसम की शीतलता के साथ करोड़ां परिन्दों के आशियाने भी ध्राशाही हो गए। इसकी चिंता किसी भी र्ध्माचार्य ने नहीं की और न ही वन विभाग के उस समूह ने जो पशु पक्षियों के संरक्षण के दावे तो बहुत करता है लेकिन इस तेजी से वृक्ष कटाव का सबसे अध्कि प्रभाव उस विपरीत स्थिति पर पडा जिसमें वातावरण की सुंदरता और शीतलता का बोध् घने जंगल होने से बरसात के मौसम में अपनी आकर्षण शक्ति द्वारा धरती पर बरसात द्वारा पानी की नदियों में अपने पानी द्वारा उनकी धराओं की रवानी और कलकल बहने की शक्ति् दे के साथ समस्त संसार की प्यास बुझाते थे। लेकिन अब बहती नदियों में जल के अभाव से हमारी नदिया तो गंदे नाले में तब्दील होने के साथ वातावरण में गर्मी और तेजी से घटते ग्लेशियर की संख्या में कमी आने से पिछले वर्ष एटलान्टिका जैसे श्रेत्रों में भी बर्पफ की कमी के कारण वहां जीव जन्तु भी मौत के खतरों से जूझते नजर आए। सूत्रों के अनुसार मौसम जो भी बदलाव आए उसमें तेजी से बढ़ते महानगरों की बहुमंजिली इमारतों के साथ लगातार बढ़ती मानव जाति की भीड़ और इसी के पफलस्वरूप खेत खलिहानों में तेजी से कटते वृक्ष और हरे भरे खतों के स्थान पर बढ़ते हुए मशीनीकरण के द्वारा कारखानों की बाढ़ जिससे ध्रती और प्रावृफतिक वातावरण का जो तालमेल या उसका संतुलन बिगड़ गया, जिसके कारण हमारे वन्य जीवन का जो भी प्रभाव देखा जा रहा है उससे हम उन्मुख्त नहीं हो सकते।
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उसका अनुमान हम पक्षियों के अभाव और विदेशों से आने वाले परिन्दों के व्यवहार से बखूबी लगा सकते है। क्योंकि आज हमारे बीच से प्रत्येक घरों में चहचहाने वाले अन्य पक्षियों की कमी के कारण बखूबी लगाया जा सकता है, क्योंकि पिछले दिनों एक बात की चर्चा जोरों पर थी कि भारत में अब गौरेÕया चिड़िया की कमी देखने में आ रही है, बढ़ते प्रदूषण और छतों पर लगे मोबाईल टॉवर जिनकी रेडियेशन की तरंगों द्वारा गौरेÕया चिड़िया की प्रजनन संख्या में कापफी कमी देखी गई। इसी के साथ हमारे गि( पक्षी की तो अब शायद प्रजाति की समाप्त हो गई है। वह आज कही दिखाई नहीं देते, इसी के साथ चील, कौवे, पफाकता, कटपफोड़वा, तोते, मोर, बुलबुल, ब्लूवर्ड ;नीली चिड़ियाद्ध नीलकण्ठ, पहाड़ी तोता, मैना आदि भी लुप्त होने की कगार पर है, तितली जैसी प्रजातियां भी अब किताबों में ही दिखाई देगी। कोयल, उल्लू व चमगादड़ जो वायु प्रदूषण के साथ दिल्ली से लेकर हरिद्वार तक की सड़कों के किनारों वृक्षों पर कही-कही दिखाई देते थे, वह हाइवे और मैट्रो रेल तथा सड़कों के किनारे तेजी से भवन बन जाने के कारण उस क्षेत्रा के झील, पोखर, कुए आदि के साथ पानी के वह तमाम श्रोत जो लगभग सूख गए है, पेड़ों के कटाव से बाहर से आने वाले पक्षियों की संख्या अब कापफी कम दिखाई देती है, जिसमें बदलते मौसम में विशेष तौर से सर्दी में कुछ विशेष प्रकार के परिन्दे जो हमेशा दिल्ली तथा उसके आसपास दिखाई देते थे अब यह कमनजर आते है, क्योंकि कटे पेड़ों के कारण उनके आने वाले मार्ग के पड़ाव में कापफी दूरी नजर आती है जिससे वह थकान का अनुभव करते है जहां दूर-दूर तक उनके विश्राम के लिए अब न कोई झील ही दिखाई देती है और न ही छायादार पेड़।

इसी के पफलस्वरूप पक्षियों की नाराजगी देखी जा सकती है, जिसमें गुलाबी सपेफद लंबी टांगों और गुलाबी चोंच वाली फ्रलेमिंगों बर्ड जिसे लोग राजहंस भी कहते है। यह वैसे दक्षिण एशिया का निवासी है, लेकिन मौसम के बदलते अंदाज से यह भारत की यात्रा पर ही देखा जाता है। वैसे भारत में यह गुजरात के कच्छ नल सरोवर, महाराष्ट्र और उड़ीसा के तटीय क्षेत्रों में पाया जाता है। पर्यावरण व पक्षियों के जानकारों के अनुसार यह दिल्ली के कुछ स्थानों पर मौसम के बदलाव में ही आते है। जिसे लोग दिल्ली के ओखला बर्ड सेंचुरी और सुल्तानपुर के नेशनल पार्क में देख सकते है। कहने को यह पहले अध्कि संख्या में नजर आते थे वही अब दिनोंदिन इनकी प्रजातियां कम होने के कारण इनकी प्रजनन संख्या में कमी बताई जा रही है। वह अपने अंडे वहां संजो कर रखते है। इसके साथ पेड़ों पर अंडे देने वाले पक्षियों को पेड़ों का अभाव इनकी उत्पति में बाध है। इसी के साथ खाने पीने के लिए इनके लिए कीट पंतगें, छोटी मछलियों के साथ स्वच्छ पीने का पानी भी उपलब्ध् नहीं है, गंदा और अस्वच्छ पानी के कारण इनका स्वास्थ्य खराब हो जाता है। जिससे इनकी मृत्यु होना स्वाभाविक है।

जानकारों के अनुसार अभी तो यह पक्षी यमुना किनारे तथा झील या तालाबों के किनारे देखे जा सकते है। पिफर भी महानगर में इनके लिए कोई भी सुरक्षित क्षेत्रा नहीं बचा है जहां पर लंबी यात्रा के दौरान विश्राम कर सकें। वही दूसरी ओर मैट्रो रेल के विकास ने जिस हिसाब से विशालकाय सैकड़ों वर्ष पुराने पेड़ोंको काटकर जो आतंक वाला वातावरण बनाया हुआ है उसको देखते हुए अब दिल्ली शहर में पक्षियों के आशियाने उजड़ने की कगार पर है जिसमें बहुत से पक्षियों के आशियाने उजाड़े जा चुके है। जिनमें मंडी हाउस, यमुना के किनारे फ्रलाई ओवर, रिंग रोड, बहादुर शाह जपफर मार्ग से लेकर पुरानी दिल्ली, एडवर्ड पार्क दरियागंज, लाल किला, यूनिवर्सिटी क्षेत्रा मॉडल टाउन तथा दिल्ली के बाहर क्षेत्रा रानी बाग, गुलाबी बाग, शालीमार बाग, कुदसिया पार्क आदि के साथ किशनगंज, नजपफगढ़ से लेकर वह हिस्सा शामिल है जिसे हम दिल्ली के नक्शे में खादर बांगर, डाबर और बादली जेसे गांवों के नाम से जानते थे। इन क्षेत्रों में जो पेड़ों के बाग थे वह पूरी तरह नष्ट हो गए है, या उनके स्थान पर नाम मात्रा ही कुछ पेड़ शेष रह गए है। कहने के लिए मैट्रो रेल विभाग द्वारा उतने पड़ों को काटने पर उससे अध्कि पेड़ लगाने का दावा कर रहे है तो क्या वह उन सौ साला पेड़ों के काटे जाने और पक्षियों के घोंसलों को उजड़ने की भरपाई कर पाएंगे। जिसका दावा सरकार और अन्य इंजीनियर विभाग विकास के नाम पर पेड़ों को निर्ममता से कटवा देता है। कहने के लिए अब सरकार कुछ स्थानों पर पुरानी लुप्त झीलों को लेकर उन्हें पुनः नया जीवन देने के लिए कदम उठा रही है, लेकिन उसी के साथ क्या वह पीपल, आम, नीम, गूलर, पीपली, महुआ, इमली, आंवला, बहेड़ा आदि के साथ जामुन, सेमर और मोलसरी, कमरक, शहतूत, अशोक, ढाक, बरगद,  अमलताश जैसे पेड़ों को लगाकर वही सुंदर वातावरण का निर्माण कर पाएगी, जहां पर पक्षी आकर पुनः अपना बसेरा बनाकर चहचहाना आरंभ कर कर दें। शायद इसकी चिंता देश के किसी नेता को नहीं है बल्कि पर्यावरण से जुड़े लोगों को कोई जागरूकता अभियान चलाकर ही परिन्दों के आशियानों की रक्षा करनी होगी तो भविष्य में हमें पक्षियों के मध्ुर कलरव और मीठी आवाज में कोयल का स्वर सुनाई दें। अन्यथा राजधनी की सुंदर छवि को ग्रहण लगाने वाले श्रोतों की कमी नहीं। जब यह कहा जाएगा कि क्या यहां कभी सुंदर दिल्ली और लुटियन जोन का वह हरियाला क्षेत्रा था जिसकी तुलना हम किसी भी विदेश की नगरी से कर सकते थे, जहां मुगल सल्तनत से लेकर अंग्रेजी कार्यकाल की गूंज व पक्षियों का शोर सुनाई देता था।





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